Category: Poem

  • क्या हिंदी जीवित रहेगी?

    आखिरी सासें लेती,
    थकी-हारी, चरमराई,
    हिंदी की जो है हालत,
    उसे बचा सके दवा न दुहाई।

    अंग्रेजी का अत्यधिक उपयोग,
    नहीं है इसका कारण,
    ना ही इस बात पे रोने से,
    टलेगा इसका मरण।

    हिंदी के पुनर्जन्म का,
    बस एक ही है रास्ता,
    अपने स्तर पर उसका प्रचार,
    और भाषा के प्रति सच्ची आस्था।

    यूँ तो भाषा कभी मरती नहीं,
    वो होती है अमर,
    पर ऐसे जीवन का भी क्या ही फायदा,
    जब अपने ही घर बैसाखी पर निर्भर।

    – अभिषेक ‘देसी देशपांडे

  • मलहम-ए -खिचड़ी

    आपको देख दिल पे चल जाती है अभी भी छुरिया,
    पर आपने तो फेका था हमें जैसे सीली हुई भुजिया।

    खा पी कर ले रही हो तुम डकार,
    पर क्या कभी याद किया तुमने पुराना प्यार?

    धराशायी मन, टूटे दिल की सिसकी,
    सोचा शांत करू इसे मार मदिरा की चुस्की।

    पर मदिरा की राह लेते है असफल और बेकार,
    हमने अपनाया खिचड़ी, पापड़, और अचार।
    -अभिषेक देशपांडे ‘देसी’
  • किम्कर्त्व्यविमुढ

    सब कुछ  था स्थिर, अविचलित, शांत सा,
    अचानक से इस दुविधा ने लाया एक बवंडर सा।

    क्या करे क्या ना करे के दोराहे पर मैं हु खड़ा,
    असमंजस से जूझता, पर इरादों पर अड़ा।

    इस पार है निराशा, उस पार आशा की किरण,
    बीच मझदार का सफ़र है, जिस पर तय होगा जीवन-मरण।

    -अभिषेक ‘देसी’ देशपांडे

  • अमृतसरी प्रेम कहानी, जो हो न सकी…

    निकला था मैं देश देखने,
    खाने पीने, और कुछ अच्छा लिखने.
    क्या पता था यह सफ़र मेरा दिल तोड़ देगा,
    ग़म भरे मोड़ पर ला कर मुझे छोड़ देगा.

    भरवान दा ढाबा के वोह करारे कुलचे
    मदमस्त चने और खिलखिलाती लस्सी.
    फिरनी जैसी आपने कभी न खायी,
    नरम पनीर की बाहों में संतुष्टी पायी.

    चटोरेपन का अध्याय पूर्ण कर,
    जब निकल रहा था उदर से डकारो का स्वर.
    तभी आई पीछे से एक मधुर वाणी
    “Excuse Me”

    सुन के लगा यह तो है कोई अपनी,
    कानो में घुल सी गयी जैसे फिर वही मलाईदार फिरनी.
    लम्बा कद, गोरा रंग, हलके हरे नयन,
    पहली नज़र में ही मेरे दिल ने कर लिया उसका चयन.

    उत्सुकता से भरी, हलकी सकपकाई, हलकी चकराई,
    करना चाहती थी भारतीय खाने की पढाई.
    मैंने कहा मैं समझाता आपको क्या मक्खन क्या मलाई,
    मन ही मन कहा वाह कन्या तूने क्या किस्मत है पायी.

    बातो ही बातो में पता पड़ा घूम रही वोह अपना ७१वा देश,
    थी पत्रकार, करती खबरों से प्यार और गर्मी से क्लेष.
    वार्तालाप आगे बढ़ा, जन्मा प्रेम का नवंकुर,
    उन आँखों में भी दिखा बढ़ता लगाव क्षणभंगुर.

    उसने कहा कल कल दिन “साथ” करीबी गाँव है घूमते,
    अमृतसर की गलियों के स्वादों को चखते.
    दिल गया धड़क और बढ़ी मेरी आशा,
    पर पेट में हो रही थी गुडगुड और सिर में घनघोर तमाशा.

    इन सबके ऊपर आधे घंटे में थी मेरी बस,
    प्रेम और पेट के बीच हुआ मैं बेबस.
    मैंने सोचा यही थी अपनी कहानी,
    अलविदा कहते हुए आखों में आ गया पानी.

    जाते जाते मिला मुझे एक दोस्ताना आलिंगन,
    जिसकी यादो के सहारे कटेगा मेरा जीवन.
    माहौल तो पका, पर प्यार की फिरनी न पक सकी,
    अमृतसरी प्रेम कहानी, जो हो न सकी, जो हो न सकी…

    -अभिषेक ‘देसी’ देशपांडे

  • थम सा गया ये देश.

    दिशाहीन, उलझा सा, असमंजस से जूझता हुआ,
    मेरा देश ऐसा तो न था.

    घोटालो से चरमराया विश्वास,
    लोकतंत्र का बना मज़ाक.
    अर्थव्यवस्था की चरमरायी सी हालत,
    जाति-धर्म के अनसुलझे विवाद,
    क्या मेरा देश ऐसा ही था?

    पर इन सब के बीच कम से कम एक आशा थी,
    की कुछ बदलेगा,
    सामाजिक और आर्थिक विकास नहीं,
    तो कम से कम होगा जनता का नैतिक विकास.

    लेकिन किसे पता था थमेगी बढ़ने की चाह,
    और उठेगा लोकतान्त्रिक संस्थानों में विश्वास,
    मेरा देश ऐसा तो न था.

    प्रतिदिन समाचारों से मिली निराशा,
    और देश के नेताओं की मुह से निकली भाषा.
    डर सा लगता है अब मुझे इस देश के बारे में सोच के,
    थक से गए है हम,
    और थम सा गया है यह देश.

    -अभिषेक ‘देसी’ देशपांडे

  • App आये बहार आयी.

    रविवार का था वोह दिन,
    जब रह ना पा रहा था भोजन तकनीक के बिन.
    यह दिन का हसने का, मिलने जुलने का,
    संगणक और इन्टरनेट से बाहर निकल, हर व्यक्ति विशेष से मिलने का.

    Nokia का नाम देख याद आयी मुझे उस प्रसिद्द नागिन की चाल,
    सरलता और सुदृढ़ता के बल पर जिस Nokia ने किया था अपने दुश्मनों का बुरा हाल.
    ३२१०, ११००, २१०० और इ-७२ से जुडी वोह सुनहरी यादें,
    Nokia की धुन की आड़ में पनपता प्रेम और कसमें वादें.

    Nokia से ध्यान हटा तो दिखा एक मंच सुस्सजित एवं बड़ा,
    एक तरफ था भारत का तकनिकी-गुरु, तो दूसरी ओर जूनून का प्रमुख-रसोईया था खड़ा.
    इन दोनों में से किसी एक का पक्ष लेना तो था नामुमकिन,
    एक फूल दो माली वाली थी समस्या एक हसीन.
    एक तरह से अच्छा ही हुआ मुझे मंच पर नहीं बुलाया,
    नहीं तो फूल तो क्या fool बना कर राजीव ने रहता मुझे सताया.

    लाल सोमरस के प्यालो के साथ संध्या धीरे धीरे रही थी बढ़,
    नशे के साथ तकीनीकी एवं पाककला का ज्ञान भी दिमाग पे रहा था चढ़.
    समां भी बंध सा गया था, कुछ चेहरे थे जाने कुछ अनजाने,
    ब्लॉग की दुनिया से निकल कर, आधे तो आये थे ताज के भोजन के बहाने.

    फिर जैसे ही app आयी, आयी बहार,
    Chaplin महोदय की चाल चलते विकास हो, या चित्रो में चेहरों का होता संहार.
    मुझे पता है कुछ apps ऐसी हैं जिनमे बसी है मेरी जान,
    क्योकि वोह मेरे दोनों शौक पूरे करे – भोजन और सामान्य ज्ञान.

    फिर गरिष्ट भोजन, तस्वीरों और अच्छी बातो के साथ ख़तम हुई वोह शाम,
    ज्यादा खा-पी लिया, अब सिर्फ आएगा Eno काम.

    -अभिषेक ‘देसी’ देशपांडे

    Nokia AppTasting  और Indiblogger को मेरी तरफ से एक छोटी सी भेंट.

    कृपया ध्यान दे:

    Technology शब्द के लिए मैंने तकनीक का प्रयोग किया, मैं प्रौद्योगिकी और तकनीक के बीच झूल रहा था. भाषा में हुई किसी भी गलती के लिए माफ़ी चाहूँगा. इस बात पे मुझे हृषिदा की चुपके चुपके का एक संवाद याद आ गया:

    भाषा अपने आप में इतनी महान होती हैं की कोई उसका मजाक उड़ा ही नहीं सकता.

    Featured image by Shivani: निखिल, विकास, मैं और विकास में पूरी तरह खोयी हुई कन्यायें.

  • किस्सा कचोरी का…

    रविवार का था वह एक आम सा दिन,
    दूरदर्शन पर चल रहा था चंद्रकांता, कैसे रहते लोग कड़क सी चाय के बिन.
    चाय के साथ था कुछ खस्ता, रस्क, और नमकीन,
    पर जब घर आई कचोरी और जलेबी, तब खिस्की ज़बान तले ज़मीन.

    समोसा, आलू बोंडा और मंगोड़े भी देते है टक्कर,
    पर कौन रह सकता है कचोरी के स्वाद से बचकर.

    कचोरी कई बार अपना रूप बदलती,
    राजस्थान मैं पूरी तो गुजरात मैं लड्डू बनती.
    रूप के संग इसका ह्रदय भी बदलता
    कभी मूंग कभी आलू कभी प्याज और कभी मटर से इसका दिल है धड़कता.

    दिल्ली मैं चाट की शोभा बढाती राजकचोरी,
    या दही सौंठ के अभिषेक से बनी दही कचोरी
    उत्तर प्रदेश मैं आलू रस्सा संग रस रचाए
    कचोरी हर रंग रूप मैं हमें है भाये.

    इंदौर मैं सराफे का वजन,
    या कोटा-जयपुर मैं इसका प्याज से लगन
    गंगा मैय्या किनारे मोहन पूरी वाला,
    कचोरिया ऐसी जुग जुग जिए बनाने वाला.

    मेरा तो है बस यही अंतिम विचार,
    कचोरी के है चार यार
    चटनी, सौंठ, दही और तलने वाले का प्यार.

    -अभिषेक ‘देसी’ देशपांडे

  • टेस्ट क्रिकेट का अंत… या शुरुआत?

    आने वाला है क्रिकेट इतिहास का एक अमर क्षण
    जब होने चलते स्वयं के टेस्ट के पूरे दो हज़ार रन,
    १८७७ मैं शुरू हुई थी जो प्रथा
    २०११ मैं क्या हो गयी है इसकी व्यथा.

    अंग्रेजो ने नीव रखी क्रिकेट के खेल की
    खेल खेल मैं उन्होंने फैलाई सभ्यता ब्रिटेन की,
    शुरू मैं था बस यह अंग्रेजो और उनके के गुलामो का टकराव,
    वो क्या जानते थे एक दिन गुलाम ही करेंगे इस खेल का ऐसा बदलाव.

    उन दिनों यह होता था खेल गौरव का, प्रतिष्ठा का
    सज्जनों का और वतन के लिए खेलने वालो का,
    पर जब से आई एक दिवसीय और टी-२० क्रिकेट की बहार,
    बदल ही गया इस खेल का व्यवहार.

    अब लोगो को पसंद है मार पीट कर खेलने वाले बल्लेबाज़
    गेंदबाजों की अस्मत पर गिरी है गाज,
    वो दिन थे जब थरथराते थे गेंदबाजों से बल्लेबाज़ हर क्षण,
    गेंदबाज़ थे की थे वो लंकापति रावण.

    वक्त बदला, तकनीक बदली, मैदान हुए हरे भरे, वेश भूषा हुई रंगीन
    दूरदर्शन ने दर्शको का अनुभव बदला, तो कम कपडे पहनी नर्तकियो ने किया मामला संगीन
    बस कुछ नहीं बदला
    तो वो है क्रिकेट-प्रेमियों के प्रेम, और महानता की परिभाषा.

    महानता के सर्वोच्च उदहारण,
    उम्मीद है लोर्ड्स पर करेंगे अंग्रेजो का हरण,
    भगवान् से मेरी है यही गुज़ारिश
    अपने अवतार के ज़रिये हमेशा करते रहे रनों की बारिश.

  • विस्फोट, तुम फिर आ गए!

    विस्फोट, तुम फिर आ गए!
    जीवन की कीमत तो तुमने समझी नहीं
    कम से कम
    भय की परिभाषा तो समझ लेते.

    मुंबई शहर में लोग हर क्षण है मरते
    ज़िन्दगी की भागदौड़ में दबते कुचलते
    इस भाग दौड़ थकान के बीच
    किसे है समय भयभीत होने का.

    भय है बढती महंगाई का, नौकरी का,
    भय है घर बार का, सब्जी तरकारी का.
    अरे विस्फोट तुमसे हम क्यों डरे
    मुंबई की बारिश की तरह हो तुम, रोज आते जाते,
    रोज की बारिश से
    किसे है समय भयभीत होने का.

    अब ये मन भयभीत नहीं
    यह बस सुन्न हो चुका है, थक चुका है
    एक प्रश्न पूछूँ तुमसे – उत्तर दोगे?
    क्या तुम नहीं थके?

    – अभिषेक देशपांडे ‘देसी’

  • काश ये दिल होता Tupperware का

    हम प्यार करते थे उनसे बेशुमार,
    उनके इश्क मैं हुए थे बीमार
    हमे लगा वो भी है उतनी ही बेक़रार,
    कर बैठे प्यार का इज़हार.

    फिर क्या कहे क्या हुआ
    अच्छे खासे दिल का मालपुआ हुआ,
    दिल तो हमारा था कोमल और नाज़ुक
    पर जब टूटा तो आवाज़ आई जैसे चले कोई चाबुक,
    कांच की तरह टुकड़े हुए उसके हज़ार,
    सारे अरमानो का हुआ मच्छी बाज़ार.

    काश ये दिल न होता कांच जैसा brittle
    और हर बार ना होते इसके टुकड़े little little,
    अगर ये होता Tupperware जैसा मज़बूत
    गिर पड़ संभल कर भी रहता साबुत,
    प्यार की गर्मी और चाहत की सर्दी झेलता
    हर मौसम येह ख़ुशी ख़ुशी खेलता,
    हर सप्ताह नयी नयी गृहणियो के संग पार्टी मनाता
    कुंवारी ना सही, शादीशुदा का ही संग पाता.

    पर क्या करे यही है कुदरत का न्याय,
    Tupperware के दिल का कभी ना खुल सकेगा अध्याय… कभी ना खुल सकेगा अध्याय.

    Dedicated to all the losers in the world :)…